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Saturday 24 April 2010

अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 1

क) अमरकांत की संपूर्ण कहानियाँ - खण्ड 1 
      इस खण्ड में संग्रहित कहानियों को '1950 का दशक` और '1960 का दशक` नामक दो भागों में मुख्य रूप से विभक्त किया गया है। '1950 का दशक` के अंतर्गत कुल 19 कहानियाँ हैं तो '1960 का दशक` में कुल 20 कहानियाँ संग्रहित हैं। 333 पृष्ठों की इस पुस्तक में अमरकांत द्वारा दो दशकों में लिखी गयी कुल 39 कहानियाँ हैं। इन कहानियों में से कुछ का हम संक्षेप में परिचय प्राप्त करेंगे।
1) इंटरव्यू :
      'इंटरव्यू` अमरकांत द्वारा लिखी वह पहली कहानी थी जिससे उन्हें 'कहानीकार` कहलाने का सौभाग्य मिला। आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में अमरकांत ने डॉ. रामविलास शर्मा और अन्य मित्रों के सम्मुख यह कहानी सुनायी। अमरकांत खुद एक इंटरव्यू में सम्मिलित हुए थे, उसी घटना का विस्तार से वर्णन करके उन्होंने यह कहानी लिखी थी। इस कहानी के छपने के पहले अमरकांत श्रीराम वर्मा के नाम से ही जाने जाते थे। स्वयं अमरकांत कहते हैं कि, ''मैं तब श्रीराम वर्मा था। अमरकांत मेरा पेननेम है। 1953 में बदला। मेरी पहली साहित्यिक कहानी 'इंटरव्यू` 1953 में 'कल्पना` में छपी थी। तभी पेननेम अमरकांत कर लिया।.........।``2
      इस कहानी में राशनिंग विभाग में 60 रूपये की क्लर्की के एक रिक्त पद के लिए आये उम्मीदवारों की बेचैनी, दिखावा, अपने को अधिक योग्य सिद्ध करने का प्रयास आदि का बड़ा ही रोचक एवम् व्यंग्यात्मक वर्णन अमरकांत ने किया है। कहानी में किसी भी पात्र को कोई भी नाम नहीं दिया गया है। जो कि कथावस्तु के अनुरूप ही है।
      इस कहानी के संदर्भ में अजित कुमार लिखते हैं कि, ''इंटरव्यू` एक छोटी-सी कहानी है जो अपने देश में इंटरव्यू के नाम से चलते जा रहे एक बहुत बड़े ढोंग या मखौल का हल्का-फुल्का बल्कि सीधा-सपाट बयान करती है। खुलासा या पर्दाफाश नही, महज एक दिलचस्प और पाठनीय ब्यौरा। अपनी इस प्रकृति में 'इंटरव्यू` कहीं-कहीं प्रेमचंद की याद भी दिलाती है, जिनके यहाँ कहानी रोजमर्रा की जिंदगी में मौजूद रहती है, वह विचित्र या असामान्य स्थितियों को तलाशना जरूरी नहीं समझती। ....... निश्चय ही अमरकांत की यह आरंभिक कहानी न तो समस्या का कोई सरलीकरण करती है न एक विशेष अर्थ में वह कोई सपाट कहानी है। मेरे लिए उस कहानी का महत्व जिन कारणों से है, उनमें यह भी उल्लेखनीय है कि वृत्ति से पत्रकार पर मनोवृत्ति से लेखक अमरकांत की यात्रा का यह प्रस्थान बिंदु है, जहाँ से उनकी प्रतिबद्धता क्रमश: मुखर और सुदृढ़ होती चली गई।3
2) गले की जंजीर :
      इस कहानी के संदर्भ में श्रीपतराय जी लिखते हैं कि, ''गले की जंजीर` का मुखर व्यंग्य इतना प्रिय है कि चित्त में एक स्फूर्ति का संचार होता है। इसमें वर्णित घटना हम सबके साथ कभी न कभी अवश्य घटी होगी पर इसको इतने सहज, आयासहीन, विनोदी ढंग से वर्णन करने की क्षमता कितने लोगों में होगी?``4
      'गले की जंजीर` अमरकांत द्वारा लिखी ऐसी कहानी है जिसमें वे एक ही समस्या पर अलग-अलग लोगों की विचार दृष्टि को बड़े ही व्यंग्यात्मक एवम् हास्य के पुट के साथ प्रस्तुत करते हैं। लेखक अपने मित्र जगदीश के गले की सोने की जंजीर देखकर मोहित हो जाते है। उसे वे बेशर्मी से पहनने के लिए माँग भी लेते हैं। लेकिन सुबह जब लेखक सो कर उठे तो, जंजीर गले में नहीं थी।
      इसके बाद यह खबर पूरे प्रेस में फैल गयी। मिश्र दादा, प्रेस-मैनेजर गुलजारी लालजी, रामविलास, प्रधान संपादक, जोसफ, परेश बनर्जी और ठाकुर साहब सभी ने जंजीर खोने के विषय में बनावटी चिंता व्यक्त करते हुए अपने-अपने तरीके से उसे बचाने का उपाय बताने लगे। कोई कहता कि उसे ट्रंक में रखना चाहिए था, कोई दराज में रखने की सलाह देता। कोई कहता कि किताबों के बीच रख्ना अधिक युक्ति संगत है।
      अलग-अलग लोगों की सलाह सुनते हुए, लेखक अपनी मूल समस्या को तो जैसे भूल ही गये और अंत तक यह तँय नहीं कर पाये कि वे किसकी सलाह माने।